मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है...
किसी भी मंदिर में भगवान के दर्शन करने के बाद मंदिर में मंदिर की पैड़ी या ऑटले में कुछ समय बैठने की प्राचीन परंपरा है। धर्म के विद्वानों के अनुसार यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए होती है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलकर भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिए। इस परंपरा और श्लोक का शायद ही कुछ लोग पालन करते है।
श्लोक इस प्रकार है ~
"अनायासेन मरणम् , बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम् , देहि मे परमेश्वरम्॥"
इस श्लोक का अर्थ है ~
"अनायासेन मरणम्" अर्थात् - बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हों चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।
"बिना देन्येन जीवनम्" अर्थात् - परवशता का जीवन ना हो। कभी किसी के सहारे ना रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।
"देहांते तव सानिध्यम" अर्थात् - जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।
"देहि में परमेशवरम्" अर्थात - हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।
धर्म को मानने वाले लोगो को भगवान से प्रार्थना करते हुऐ उपरोक्त श्र्लोक का पाठ करने का विधान बताया गया है। लोगो को ईश्वर से गाड़ी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् विलासतायुक्त सांसारिक उपभोग की वस्तुओ) को नहीं मांगना चाहिए, क्योंकि यह सब ईश्वर लोगो को उनकी पात्रता के अनुसार से स्वतः ही प्रदान कर देते है।
इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठकर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है क्योंकि याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार, नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन अथवा अन्य सांसारिक विलासता युक्त वाली चीजों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना है।
'प्रार्थना' शब्द के 'प्र' का अर्थ होता है 'विशेष', विशिष्ट, श्रेष्ठ और 'अर्थना' का अर्थ होता है निवेदन करना। इस प्रकार प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन, विशिष्ट निवेदन , श्रेष्ठ निवेदन।
मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, ईश्वर की मूर्ति को साक्षात् प्रभु के दर्शन मानते हुए निहारना चाहिए। जबकि प्रायः मंदिर में कुछ लोग वहां आंखें बंद करके दर्शन करते है। आखिर मंदिर में ईश्वर के दर्शन करते समय आंखें बंद क्यों करना, जबकि मंदिर में हम तो दर्शन करने आए है। इसलिए मंदिर में हम सभी लोगो को भगवान के स्वरूप का, भगवान् के श्री चरणों का, भगवान् के मुखारविंद का, भगवान् ले श्रृंगार का संपूर्ण आनंद लेंना चाहिए।
वही मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर बैठकर नेत्र बंद करके जो दर्शन किया हैं उस महान स्वरूप का मनन और ध्यान करना चाहिए।